श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य जयंती महोत्सव की हार्दिक बधाई।श्रीनिम्बार्काचार्य ने समस्त वैष्णव आचार्यों एव श्रीशंकराचार्य से पूर्व धर्म की लडखडाती ध्वजा को संभाल कर और ईश्वर भक्ति जो कर्मकाण्ड में ही उलझा दी गई थी को "उपासनीयं नितरां जनैः" के घोष द्वारा सर्वजन के अधिकार की घोषित कर प्रत्येक जीव को - "ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं" बताकर प्रत्येक मानव को ज्ञान का अधिकारी और श्रीहरि के आधीन घोषित किया।
श्रीनिम्बार्काचार्य ने द्वैत और अद्वैत के खण्डन मण्डन की प्रवृत्तियों के प्रारम्भ से बहुत पूर्व वेदान्त में स्वाभाविक रूप से प्राप्त द्वैताद्वैत सिद्धांत को ही परिपुष्ट किया। ब्रह्म के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार सभी स्वरुप स्वाभाविक हैं। इनमें किसी एक के निषेध का अर्थ होता हैं ब्रह्म की सर्वसमर्थता, सर्वशक्तिमत्ता में अविश्वास करना।
अखिल ब्रह्माण्ड में जो हैं सब ब्रह्ममय ही हैं, ---
"सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकंश्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः |
ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरुपताअपि श्रुतिसुत्रसाधिता ||
श्रीनिम्बार्क के विचार में जगत भ्रम या मिथ्या नहीं, अपितु ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम है।
श्रुति और स्मृति वचनों से इसकी सिद्धि होती हैं।
कई लोग श्रीनिम्बार्काचार्य को श्रीशंकराचार्य के परवर्ती सिद्ध करने का प्रयास करते हैं उसके सन्दर्भ में तथ्यों का स्वयं परीक्षण ना करके कॉपी-पेस्ट करने की प्रवृति ज्यादा घातक हुई हैं।
आचार्य निम्बार्क ने ब्रह्मसूत्रों पर "वेदान्तपारिजात सौरभ" नामक सूक्ष्म भाष्य लिखा हैं।
आचार्य के भाष्य में बौद्ध-दार्शनिक "वसुबन्धु"(समय चौथी से पांचवी शती) के अस्तित्व-वादी मत का उल्लेख हुआ हैं, और सिर्फ बौद्ध-जैन मत की आलोचना हुई हैं।
इसमें श्रीशंकराचार्य के मायावाद एवं अद्वैतवाद का खंडन नहीं हुआ हैं। उत्पत्यधिकरण सूत्र में आचार्य निम्बार्क ने "शक्ति कारणवाद" का खंडन किया हैं। यदि वे आदिशंकराचार्य के परवर्ती होते तो उनके "व्यूहवाद-खंडन" का भी प्रतिवाद करते। इसके विपरीत आदिशंकराचार्य जी ने आचार्य निम्बार्क के द्वैताद्वैत दर्शन की आलोचना की हैं।
इतना ही नहीं श्रीनिम्बार्क के उत्तराधिकारी आचार्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा निम्बार्कभाष्य की टीका "वेदान्त-कौस्तुभ-भाष्य" में भी कहीं आदिशंकर के मत की आलोचना नहीं प्राप्त होती, जबकि बौद्ध दार्शनिक विप्रबंधु (धर्मकीर्ति) (समय पांचवी से छठी शती) का उद्धरण उन्होंने अपनी टीका में दिया हैं।
आचार्य शंकर ने अपने ब्रह्मसूत्र और बृहदारण्यकोपनिषत् भाष्य में दोनों ही आचार्यों के उद्धरणों प्रयुक्त कर द्वैताद्वैत/भेदाभेद की आलोचना की हैं।
१. श्रीनिम्बार्क -> २. श्रीनिवासाचार्य -> ३. श्रीविश्वाचार्य के बाद ४. श्रीपुरषोत्तमाचार्य ने अपने "वेदान्त-रत्न-मञ्जूषा" नामक वृहद-विवरणात्मक भाष्य में सर्वप्रथम (निम्बार्क परंपरा मे) श्रीशंकराचार्य के अद्वैतमत का प्रबल खंडन किया था।
वर्तमान में निम्बार्क सम्प्रदाय की पीठ सलेमाबाद, किशनगढ़ राजस्थान में स्थित हैं। जिसकी स्थापना आचार्य श्रीपरशुरामदेव ने की थी। विक्रम संवत १५१५ का उनके नाम से पट्टा तत्कालीन शासकों द्वारा दिया गया मौजूद हैं।
आचार्य परशुरामदेव श्रीनिम्बार्क से ३३ वीं पीठिका में थे।
उनके गुरु श्रीहरिव्यासदेव के गुरु श्रीभट्टदेवाचार्य की रचना "युगलशतक" के दोहे "नयन बाण पुनि राम शशि गनो अंक गति वाम। प्रकट भये श्री युगलशतक यह संवत अभिराम।।" से उनकी विद्यमानता विक्रम संवत १३५२ सिद्ध होती हैं। इनके गुरु श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य हुए हैं जिनका काश्मीर निवास प्रसिद्द हैं। श्रीभट्ट देवाचार्य अपने गुरु के सानिध्य में काश्मीर में ही अधिक रहे इसकी पुष्टि "तबाकते अकबरी भाग ३" से भी होती हैं। तबाकाते अकबरी के अनुसार कश्मीर के शासक राजा उदल को पराजित कर सुलतान शमशुद्दीन ने कश्मीर में मुस्लिम शासन की शुरुवात की थी। इसी शमशुद्दीन की आठवीं पीढ़ी में जैनूल आबदीन(शाही खान) हुआ जो कला विद्या प्रेमी था। इसके दरबार में श्रीभट्ट नामक पंडित का बड़ा सम्मान था जो बड़ा भारी कवि और भैषज कला में भी निपुण था। श्रीभट्ट पंडित ने सुलतान को मरणांतक रोग से मुक्ति दिलाई थी तब श्रीभट्ट की प्रार्थना पर सुलतान ने अन्य ब्राह्मणों को जो उसके पिता सिकंदर द्वारा निष्काषित कर दिए गए थे पुनः अपने राज्य में बुला लिया था तथा जजिया बंद कर दिया था। इसका शासन काल वि. सं. १४३५ से १४८७ तक रहा। इससे श्रीभट्टजी की विध्य्मानता वि. सं.१४४६ तक सिद्ध होती हैं। वि. सं. १३५२ में उन्होंने युगलशतक पूर्ण किया जो की मध्य आयु में ही किया होगा। इससे निष्कर्ष निकाल सकतें हैं की उनके गुरु श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य की विध्य्मानता वि. सं. १३०० से १४०० के आसपास तक रही।
इन्ही केशवदेव नें मथुरा में यवनों का दमन कर जन्मस्थान से मुस्लिमों के आतंक का शमन किया था। "कटरा-केशवदेव" इन्ही श्रीकेशवकाश्मीरीभट्टदेवाचार्य के नाम से प्रसिद्द हैं। तथा वहां के कृष्ण जन्मभूमि मंदिर का गोस्वामी परिवार इन्हे अपना पूर्वज मानता हैं। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं।
भक्तमालकार नाभादास जी ने भक्तमाल में इनके सम्बन्ध में अपने पद में "काश्मीर की छाप" और मथुरा में मुस्लिम तांत्रिक प्रयोग के विरुद्ध प्रयोग का विशेष उल्लेख किया हैं। जब तेरहवीं शताब्दी में ३० वीं पीठिका के आचार्य श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य की विध्य्मानता प्रमाणित होती हैं तब श्रीनिम्बार्काचार्य को श्रीरामानुजाचार्य यहाँ तक की कई विद्वान श्रीमध्वाचार्य जी के भी परवर्ती सिद्ध कर देते हैं। जितने भी शोध इतिहास लिखे जा रहे हैं सब सिर्फ पूर्व पूर्व की किताबों को कॉपी पेस्ट कर लिख रहें हैं परस्पर विरुद्ध तथ्यों की अनदेखी कर।
श्रीनिम्बार्क के अनुयायी उन्हें द्वापरान्त में प्रकट हुआ बताते हैं। और आपने जिस काल गणना का संकेत किया हैं उससे भी निम्बार्क के द्वापरान्त में विद्यमानता की ही पुष्टि होना सम्भाव्य हैं।
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