सोमवार, 10 अगस्त 2020

श्रीनिम्बार्कपीठाधीश्वर स्वामी श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी महाराज

सम्पूर्ण पश्चिमी भारत क्षेत्र तुर्क आतताइयों द्वारा अनेक शताब्दियों से प्रताड़ित किया जा रहा था इस्लाम के सैनिक इस महान पुण्यभूमि भारत को दार-उल-हर्ब से दार-उल-इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए निरन्तर अपनी पैशाचिक ताकत से आक्रमण कर रहे थे और इसी वीरप्रसूता भूमि की संताने यहाँ के राजपूत योद्धा सहित समस्त निवासी अडिग रह शताब्दियों तक उन्हें प्रवेश करने से रोके रहे।  परन्तु इतने सुदीर्घ संघर्ष से इस सुदृढ़ प्राचीर में आई दरारों में से होकर नरपिशाच प्रविष्ट भी हो चुके थे और अब संघर्ष इसी भूमि में चल रहा था। इस्लाम के सैनिकों ने कई एक स्थानों पर अपने  अड्डे जमा लिये और दिल्ली पर स्थाई होकर भारत में बलपूर्वक मंदिरों  ध्वंस कर मस्जिदें बनाना, जबरन इस्लाम में परिवर्तित करना इस्लामी राज्य के परम् आदर्श थे।  

भारत के सामर्थ्य ने 400-500 वर्षों तक इस्लामी तलवार के वार सहने के पश्चात भी हार नहीं मानी तथा साम-दाम-दंड-भेद द्वारा किसी ना किसी प्रकार इनका प्रतिरोध प्रबलतम रूप से करते रहे। 

क्षत्रिय कुल ने अपना सम्पूर्ण अस्तित्व दांव पर लगाकर सनातन धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व होम डाला।  वहीँ निरंतर बने रहने वाले इस वातावरण से हतोत्साहित होने वाली प्रजा के मन को पुनः स्वस्थ बनाने हेतु महान संतों ने नेतृत्व संभाला। श्रीगोरखनाथ, श्रीकेशवकाश्मीरी भट्टाचार्य, श्रीरामनन्द स्वामी, श्रीकबीर दास, श्रीनानक देव जी, जैसे संतों ने अपनी भक्ति प्रवाह से जनमानस के दग्ध ह्रदय को शीतलता तो प्रदान की ही अपितु अपने तेजस्वी साधना बल से मुस्लिम पीरों, मौलवियों, के छद्म तंत्र बल, सूफी आवरण में छिपे धर्मान्तरण के कुत्सित प्रयासों को भी ध्वस्त करते रहे। 

इसी महान संत योद्धा परम्परा के महान नायक थे निम्बार्काचार्य स्वामी श्रीपरशुराम देवाचार्य जी महाराज। जिन्होंने जांगल देश के निवासियों को मुस्लिम तांत्रिकों के आतंक से मुक्ति दिलाई तथा सम्पूर्ण मारवाड़ और आसपास के क्षेत्र को निर्भय कर भक्ति भागीरथी के अवरुद्ध प्रवाह को पुनः सुचारु किया। 

बीकानेर-जयपुर-जोधपुर-अजमेर-सांभर-नागौर-पुष्कर आदि के सम्मिलित क्षेत्र को "जांगल देश" कहा जाता था। ईस्वी सन 1380 से 1550 के मध्य इस क्षेत्र में तुगलक,सैयद,लोदी,सूरी जैसे क्रूरों का किसी ना किसी रूप में दोलन होता रहा तथा मुगल पैर ज़माने के प्रयास में लगे थे।   

नागौर अजमेर तो तुर्कों के गढ़ बन चुके थे।  ख्वाजा अजमेरी की दरगाह इस्लामी तकियादारों का मुख्यस्थान था जहाँ से सुफीयाने की आड़ में भोली जनता को येन केन प्रकारेण भ्रमित कर इस्लाम में दीक्षित करना और तंत्रबल के चमत्कार दिखाकर हतोत्साहित करना जोरों से चल रहा था। उस समय पुष्कर के निकट अपना मुख्यालय बनाकर रहने वाला मस्तिंगशाह  इन सूफी आतंकियों का नेतृत्व कर रहा था।  पुष्कर होकर द्वारिका आदि की यात्रा  वाले यात्री दलों को प्रताड़ित करना उनसे कर वसूलना आतंकित कर कलमा बुलवाना उसके धत्कर्म थे तथा उसके पालित शागिर्दों ने सम्पूर्ण मारवाड़ में ऐसे ही कार्य कर करके आम जन को उत्पीड़ित किया हुआ था।  

ऐसे ही एक बार इस दुष्ट का सताया हुआ तीर्थयात्री दल मथुरा में नारद टीला पर विराजमान श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी के पास पहुंचा और पूरी कथा सुनाई  तथा इस संकट के निवारण की प्रार्थना की। स्वामी श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी अपने वरिष्ठ शिष्य के माध्यम से इस्लामी काजी फकीरों के शमन का कार्य कर रहे थे।  अपने शिष्य श्रीसोभुराम देव जी को आपने हरियाणा के बूढ़िया में स्थित कर उस क्षेत्र की जनता को इन  आतंकियों त्राण से मुक्त किया था और अब अपने प्रिय शिष्य श्रीपरशुरामदेव जी को पुष्कर क्षेत्र के उस आतंकवादी मस्तिंगशाह के दमन हेतु जाने की आज्ञा दी। 

श्रीगुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर श्रीपरशुरामदेव जी ने वर्तमान श्रीनिम्बार्कपीठ पर जो उस समय बीहड़ जंगल था आकर अपना आसन स्थापित किया जो मस्तिंगशाह के अड्डे के निकट था।  

सर्वप्रथम तो स्वामीजी ने उस इस्लामी आतंकवादी के क्षद्म तांत्रिक बल को समाप्त कर वैष्णव सिद्धि का प्राबल्य दिखाया।  आस पास के राजपूत योद्धाओं का संघठन खेजड़ला के भाटी सरदारों के नेतृत्व में बनाकर धीरे धीरे उस मस्तिंगशाह के सभी गुर्गों को समाप्त कर सम्पूर्ण क्षेत्र को निर्भय किया।  पुष्कर-द्वारिका के मार्ग को निष्कंटक बनाकर तीर्थयात्रा पुनः आरम्भ करवाई। 


खेजड़ला भाटी सरदार गोपाल सिंह जी, मेड़ता के राव दूदा जी मेड़तिया जैसे राजपूत वीरों के नेतृत्व में हिंदुओं के रक्षार्थ प्रयत्न आरम्भ हुए।  जोधपुर में उस समय जड़मति अहंकारी मालदेव की मूर्खताओं के कारण इस प्रयास की गति धीमी रही परन्तु शनैः शनैः कुशलता से श्रीस्वामीजी के  तपोबल से स्थितियाँ सुधरने लगी। वीरमजी मेड़तिया, सीहोजी भाटी के माध्यम से शेरशाह सूरी को प्रभाव में ले जजिया पर रोक लगवाई गई। मालदेव निजधर्म और निज कुल का ही हत्यारा हो रहा था तब शेरशाह के माध्यम से उसका नियमन किया गया।  उस समय शेरशाह ने नवनिर्मित निम्बार्कपीठ की यात्रा की और स्वामीजी महाराज को एक बहुमूल्य दुशाला भेंट किया।  स्वामीजी ने उस दुशाले को चिमटे से उठाकर अपने धूणे में डाल दिया, शेरशाह को दुखी देखकर उसी धूणे में से निकाल निकालकर अनेक दुशाले रख दिए।  यह एक योगसिद्ध महात्मा का एक बलशाली विधर्मी को चमत्कृत कर धर्मरक्षा हेतु कार्य करवाने की नीति थी। 

स्वामीजी ने अपने विरक्त शिष्यों की एक सेना ही स्थापित कर ली और गाँव गाँव में गोपाल द्वारों की स्थापना कर भक्ति और शक्ति के केंद्र स्थापित किये।  इन गोपाल द्वारों के माध्यम से जहाँ भक्ति का आस्वादन होता वहीँ गाँव के प्रत्येक बालक/युवकों को अस्त्र शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता था।  प्रत्येक गाँव में ऐसे बलिष्ट वैष्णव युवाओं के दल स्थापित हो गए जो माला और भाला दोनों साथ रखते थे। 


भक्तमालाकर श्रीनाभादास जी ने अपने पद में लिखा है - 

गोविन्द भक्ति गद रोग गति तिलक दाम सद वैद हृद । 

जांगल  देस  के  लोग  सब  परसराम  किये  पारसद ।।   

जांगल देश के गाँव गाँव में श्रीपरशुरामदेव जी ने भक्ति और शक्ति का समन्वय कर सुदर्शनचक्र रुपी पार्षद प्रकट कर दिए जो श्रीनिम्बार्क प्रदत्त भक्ति का प्रचार करते थे और आवश्यकतानुरूप म्लेच्छ असुरों का चक्रराज के रूप में निवारण कर भक्तों की रक्षा करते थे।  श्रीहरिव्यासदेवाचार्य के पश्चात  स्वामी श्रीपरशुरामदेव जी को श्रीनिम्बार्कसमप्रदाय का आचार्यपद प्राप्त हुआ तथा परम्परागत श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा का सौभाग्य मिला।  आपने अनेक पदों और दोहों की रचना करि जिसे सम्मिलित रूप से "परशुराम-सागर" के नाम से जाना जाता है। आपने जहाँ सर्वप्रथम अपना आसन स्थापित किया था वह स्थल श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ के रूप में जाना जाता है  जो श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय का एकमात्र आचार्यपीठ है। आपश्री का जयन्ती महोत्सव भाद्रपद कृष्ण पञ्चमी को होता है।

ऐसे परम प्रतापी आचार्य श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी के जन्म जयन्ती महोत्सव की मङ्गल बधाई !

बुधवार, 30 जनवरी 2019

भगवान् श्रीनिम्बार्काचार्य​ प्रणीत ​वेदान्त कामधेनु-दशश्लोकी

भगवान् श्रीनिम्बार्काचार्य​ प्रणीत ​वेदान्त कामधेनु-दशश्लोकी


ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम्।
अणुं हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहुः ||१||

यह जीवात्मा ज्ञान स्वरूप नित्य चेतन ज्योतिस्वरूप अर्थात् प्रकाश स्वरूप है तथा ज्ञातृत्ववान् अर्थात् ज्ञानाधिकरण ज्ञान का आश्रय है । यह जीवात्मा सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर श्रीहरि के सर्वदा अधीन है सभी अवस्थाओं में परतन्त्र है,परिमाण में यह अणुरूप अतिन्द्रिय है, नाना शरीरों के साथ संयोग-वियोग योग्य प्रत्येक देह में भिन्न-भिन्न और अनन्त है - वेदान्त वचन एवं महर्षियों के उपदेश इसी का प्रतिपादन करते हैं ।


अनादिमायापरियुक्तरूपं त्वेनं विदुर्वै भगवत्प्रसादात् ।
मुक्तञ्च बद्धं किल बद्धमुक्तं प्रभेदबाहुल्यमथापि बोध्यम् ||२||

ज्ञान स्वरूप एवं ज्ञातृत्ववान् होने पर भी जीव परात्पर परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीहरि की अनन्त अचिन्त्य अघटघटना पटीयसी अनादिकर्मात्मिका त्रिगुणात्मिका माया से परिव्याप्त है अतएव अपने स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं कर पाता, परन्तु उन सर्वज्ञ अखिलान्तरात्मा श्रीहरि की जब अहैतुकी कृपा हो जाती है तब वह जीव अपने स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान करने में समर्थ हो जाता है। बद्ध और मुक्त भेद से द्विविधरूप जीवात्मा बुभुक्षु-मुमुक्षु इत्यादि विविध भेदों में विभक्त रूप से अवस्थित है ।


अप्राकृतं प्राकृतरूपकञ्च कालस्वरूपं तदचेतनं मतम्।
मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्लादिभेदाश्च समेऽपि तत्र ||३||

ज्ञानस्वरूपता एवं ज्ञातृत्व शक्ति से रहित को 'अचेतन' कहते हैं जो तीन रूप में विद्यमान है अप्राकृत-प्राकृत तथा कालस्वरूप। इनमें 'माया' 'प्रधान' प्रकृति शब्दों से अभिहित त्रिविध गुणों का आश्रय 'प्राकृत' रूप अचेतन कहा गया है जो शुक्ल-कृष्णादि भेद से विद्यमान है। प्राकृत तथा काल से विलक्षण प्रकाश स्वरूप नित्य दिव्य भगवद्धाम को अप्राकृत अचेतन में प्रतिपादित किया गया है।


स्वभावतोऽपास्तसमस्तदोषमशेषकल्याणगुणैकराशिम्।
व्यूहाङ्गिनं ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम् ||४||

जो स्वाभाविक रूप से यावन्मात्र निखिल दोषों से रहित हैं। सौन्दर्य-सौकुमार्य-माधुर्य लावण्य, कारूण्य, मार्दवादिअनन्त दिव्य गुणों के असीम परमनिधि हैं। वासुदेव संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरूद्ध प्रभेद से चतुर्युह एवं नानाविध अवतारों के जो मूल अङ्गी हैं। विधि-शिव-पुरन्दरादि सुरवृन्दों एवं पराभक्तिपरायण रसिक प्रपन्नभक्तों द्वारा सर्वदा वरेण्य अर्थात् परम उपासनीय है। ऐसे नयनाभिराम अरविन्दलोचन परात्पर परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीहरि भगवान् श्रीकृष्ण का हम सभी अनन्त जीवात्मा प्रतिपल ध्यान करें।


अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम्। 
सखीसहस्रैः परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ||५||

ऐसे अनन्तदिव्यगुणगणनिलय सर्वेश्वर सर्वद्रष्टा भगवान् श्रीकृष्ण के वामाङ्ग में परमानन्द पूर्वक नित्य विराजमान उन्हीं अनन्तकृपासिन्धु श्रीप्रभु के अनुरूप सौन्दर्यमाधुर्यस्वरूपा परमाह्लादिनी श्रीवृषभानुनन्दिनी अतिशय सुशोभित हैं। अगणित नित्य सखी परिकर से प्रतिपल संसेवित हैं। प्रपन्न रसिक भगवद्-भक्तों के मङ्गलमय मनोरथों को पूर्णकरने वाली श्रुतिप्रतिपाद्य देवी श्रीराधिका का हम समस्त जीव मात्र सर्वदा स्मरण करें।


उपासनीयं नितरां जनैः सदा प्रहाणयेऽज्ञानतमोऽनुवृत्तेः। 
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिस्तथोक्तं श्रीनारदायाखिलतत्वसाक्षिणे ||६||

जागतिक अज्ञानान्धकार जिससे प्राणी सर्वदा विविध कष्टानुभूति करता है, उसकी सर्वथा निवृत्ति के लिए भगवज्जनों को भगवान् श्रीराधाकृष्ण की सर्वविध रूप से निरन्तर उपासना करनी चाहिए। उक्त उपासना परम्परा का श्रीसनकादि महर्षियों ने निखिलतत्त्वसाक्षी सर्ववेत्ता देवर्षिवर्य श्रीनारदजी जो हमारे सर्वस्व भगवत्स्वरूप श्रीगुरुदेव हैं, उन्हें यह उपेदश प्रदान किया और यही उपदेश देवर्षि से हमें प्राप्त हुआ। अत: इसी युगल उपासना का श्रीभगवद्दर्शनाभिलाषी परम रसिक भावुक उपासकों के हितार्थ यहाँ निर्देश किया है।


सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकं श्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः। 
ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरूपताऽपि श्रुतिसूत्रसाधिता ||७||

विचित्ररचनारूप चेतनाचेतनात्मक यह समग्र जगत् ब्रह्मात्मक है। पुराणपुरुषोत्तम परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीकृष्ण समस्त जगत् की एकमात्र अन्तरात्मा है सुतरां सम्पूर्ण विज्ञान ध्रुव रूप से यथार्थ है। भोक्ता, भोग्य, नियन्ता यह त्रिविध त्रिरूपता श्रुति सूत्र-स्मृति द्वारा भिन्न स्वरूप प्रतिपादित होने से यह ब्रह्म से भिन्न भी है। एवंविध यह चेतनाचेतनात्मक जगत् ब्रह्म से भिन्न भी है एवं अभिन्न भी वस्तुतः यही स्वाभाविक भिन्नाभिन्न, भेदा-भेद या स्वाभाविक द्वैताद्वैत सिद्धान्त है इसे ही वेदतत्वज्ञ श्रीसनकादि महर्षि एवं श्रीनारदादिदेवर्षि या महर्षि व्यास ने प्रतिपादित किया।


नान्या गतिः कृष्णपदारविन्दात् संदृश्यते ब्रह्मशिवादिवन्दितात्। 
भक्तेच्छयोपात्तसुचिन्त्यविग्रहादचिन्त्यशक्तेरविचिन्त्यसाशयात् ||८||

भगवान श्रीकृष्ण के ब्रह्मशिवादिवन्दित युगलपदारविन्द के अतिरिक्त जीवों के लिए अन्य कोई गति अर्थात मार्ग या अवलम्ब दृष्टिगत ही नहीं है। शरणापन्न भक्तों की उत्तम इच्छा के अनुरूप मङ्गलमय विग्रह स्वरूप धारणकरने वाले अचिन्त्य शक्ति स्वरूप विधि-शिव-पुरन्दरादि द्वारा जिनके आशय को समझना अचिन्त्य एवं अतर्क्य है। अत: एवंविध स्वरूप विराजित भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमल के बिना कोई मार्ग अर्थात् शरण्य नहीं है। 


कृपास्य दैन्यादियुजि प्रजायते यया भवेत्प्रेमविशेषलक्षणा। 
भक्तिर्ह्यनन्याधिपतेर्महात्मनः साचोत्तमासाधनरूपिकाऽपरा ||९||

अनन्त कृपापयोधि भगवान् श्रीकृष्ण की अनिर्वचनीय कृपा दैन्यादि लक्षण समन्वित शरणागत भक्तों पर होती है। जिस दिव्य भगवदीय कृपा से उन दयार्णव सर्वेश्वर के पादपद्यों में जो भक्ति है वही फलरूपा एवं प्रेमलक्षणा उत्तमा पराभक्ति कही गई है, और यह पराभक्ति उन अनन्य रसिकशेखर महात्माओं के अन्त:करण में ही आविर्भूत होती है तथा बहुजन्मार्जित सत्कर्म साधन से प्राप्त होने वाली साधनरूपा अपरा भक्ति कहलाती है।


उपास्य रूपं तदुपासकस्य च कृपाफलं भक्तिरसस्ततः परम्। 
विरोधिनो रूपमथैतदाप्ते र्ज्ञेया इमेऽर्था अपि पञ्च साधुभिः ||१०||

(१) उपास्य - परात्पर परब्रह्म नित्य नवयुगलकिशोर सर्वेश्वर श्रीराधाकृष्ण के दिव्य स्वरूप का परिज्ञान (२) उपासक - इस जीवात्मा के स्वरूप का ज्ञान (३) कृपाफल - भगवान् श्रीराधाकृष्ण की कृपा का श्रीभगवत्प्राप्ति फल (४) भक्तिरस - अर्थात श्रीराधासर्वेश्वर प्रभु के युगलपदाम्बुजों में अनन्य पराभक्ति (५) विरोधी स्वरूप -अर्थात श्रीभगवद्विग्रह में प्राकृत बुद्धि करना, भगवत्परक मंत्रों को सामान्य शब्द श्रीभगवदगाथाओं में संदेह प्रकट करना आदि तथा काम, क्रोध, लोभ-मोहादि ये सभी भगवत्प्राप्ति में परम विरोधी रूप हैं। एवंविध इन पाँच प्रकार के अर्थ पञ्चक का साधकजनों को अवश्य ही परिज्ञान करना नितान्त आवश्यक है।



शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य जयंती महोत्सव



श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य जयंती महोत्सव की हार्दिक बधाई।श्रीनिम्बार्काचार्य ने समस्त वैष्णव आचार्यों एव श्रीशंकराचार्य से पूर्व धर्म की लडखडाती ध्वजा को संभाल कर और ईश्वर भक्ति जो कर्मकाण्ड में ही उलझा दी गई थी को "उपासनीयं नितरां जनैः" के घोष द्वारा सर्वजन के अधिकार की घोषित कर प्रत्येक जीव को - "ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं" बताकर प्रत्येक मानव को ज्ञान का अधिकारी और श्रीहरि के आधीन घोषित किया।

श्रीनिम्बार्काचार्य ने द्वैत और अद्वैत के खण्डन मण्डन की प्रवृत्तियों के प्रारम्भ से बहुत पूर्व वेदान्त में स्वाभाविक रूप से प्राप्त द्वैताद्वैत सिद्धांत को ही परिपुष्ट किया। ब्रह्म के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार सभी स्वरुप स्वाभाविक हैं। इनमें किसी एक के निषेध का अर्थ होता हैं ब्रह्म की सर्वसमर्थता, सर्वशक्तिमत्ता में अविश्वास करना।

अखिल ब्रह्माण्ड में जो हैं सब ब्रह्ममय ही हैं, ---
"सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकंश्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः |
ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरुपताअपि श्रुतिसुत्रसाधिता ||
श्रीनिम्बार्क के विचार में जगत भ्रम या मिथ्या नहीं, अपितु ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम है।
श्रुति और स्मृति वचनों से इसकी सिद्धि होती हैं।

कई लोग श्रीनिम्बार्काचार्य को श्रीशंकराचार्य के परवर्ती सिद्ध करने का प्रयास करते हैं उसके सन्दर्भ में तथ्यों का स्वयं परीक्षण ना करके कॉपी-पेस्ट करने की प्रवृति ज्यादा घातक हुई हैं।
आचार्य निम्बार्क ने ब्रह्मसूत्रों पर "वेदान्तपारिजात सौरभ" नामक सूक्ष्म भाष्य लिखा हैं।
आचार्य के भाष्य में बौद्ध-दार्शनिक "वसुबन्धु"(समय चौथी से पांचवी शती) के अस्तित्व-वादी मत का उल्लेख हुआ हैं, और सिर्फ बौद्ध-जैन मत की आलोचना हुई हैं।
इसमें श्रीशंकराचार्य के मायावाद एवं अद्वैतवाद का खंडन नहीं हुआ हैं। उत्पत्यधिकरण सूत्र में आचार्य निम्बार्क ने "शक्ति कारणवाद" का खंडन किया हैं। यदि वे आदिशंकराचार्य के परवर्ती होते तो उनके "व्यूहवाद-खंडन" का भी प्रतिवाद करते। इसके विपरीत आदिशंकराचार्य जी ने आचार्य निम्बार्क के द्वैताद्वैत दर्शन की आलोचना की हैं।
इतना ही नहीं श्रीनिम्बार्क के उत्तराधिकारी आचार्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा निम्बार्कभाष्य की टीका "वेदान्त-कौस्तुभ-भाष्य" में भी कहीं आदिशंकर के मत की आलोचना नहीं प्राप्त होती, जबकि बौद्ध दार्शनिक विप्रबंधु (धर्मकीर्ति) (समय पांचवी से छठी शती) का उद्धरण उन्होंने अपनी टीका में दिया हैं।
आचार्य शंकर ने अपने ब्रह्मसूत्र और बृहदारण्यकोपनिषत् भाष्य में दोनों ही आचार्यों के उद्धरणों प्रयुक्त कर द्वैताद्वैत/भेदाभेद की आलोचना की हैं।
१. श्रीनिम्बार्क -> २. श्रीनिवासाचार्य -> ३. श्रीविश्वाचार्य के बाद ४. श्रीपुरषोत्तमाचार्य ने अपने "वेदान्त-रत्न-मञ्जूषा" नामक वृहद-विवरणात्मक भाष्य में सर्वप्रथम (निम्बार्क परंपरा मे) श्रीशंकराचार्य के अद्वैतमत का प्रबल खंडन किया था।

वर्तमान में निम्बार्क सम्प्रदाय की पीठ सलेमाबाद, किशनगढ़ राजस्थान में स्थित हैं। जिसकी स्थापना आचार्य श्रीपरशुरामदेव ने की थी। विक्रम संवत १५१५ का उनके नाम से पट्टा तत्कालीन शासकों द्वारा दिया गया मौजूद हैं।
आचार्य परशुरामदेव श्रीनिम्बार्क से ३३ वीं पीठिका में थे।
उनके गुरु श्रीहरिव्यासदेव के गुरु श्रीभट्टदेवाचार्य की रचना "युगलशतक" के दोहे "नयन बाण पुनि राम शशि गनो अंक गति वाम। प्रकट भये श्री युगलशतक यह संवत अभिराम।।" से उनकी विद्यमानता विक्रम संवत १३५२ सिद्ध होती हैं। इनके गुरु श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य हुए हैं जिनका काश्मीर निवास प्रसिद्द हैं। श्रीभट्ट देवाचार्य अपने गुरु के सानिध्य में काश्मीर में ही अधिक रहे इसकी पुष्टि "तबाकते अकबरी भाग ३" से भी होती हैं। तबाकाते अकबरी के अनुसार कश्मीर के शासक राजा उदल को पराजित कर सुलतान शमशुद्दीन ने कश्मीर में मुस्लिम शासन की शुरुवात की थी। इसी शमशुद्दीन की आठवीं पीढ़ी में जैनूल आबदीन(शाही खान) हुआ जो कला विद्या प्रेमी था। इसके दरबार में श्रीभट्ट नामक पंडित का बड़ा सम्मान था जो बड़ा भारी कवि और भैषज कला में भी निपुण था। श्रीभट्ट पंडित ने सुलतान को मरणांतक रोग से मुक्ति दिलाई थी तब श्रीभट्ट की प्रार्थना पर सुलतान ने अन्य ब्राह्मणों को जो उसके पिता सिकंदर द्वारा निष्काषित कर दिए गए थे पुनः अपने राज्य में बुला लिया था तथा जजिया बंद कर दिया था। इसका शासन काल वि. सं. १४३५ से १४८७ तक रहा। इससे श्रीभट्टजी की विध्य्मानता वि. सं.१४४६ तक सिद्ध होती हैं। वि. सं. १३५२ में उन्होंने युगलशतक पूर्ण किया जो की मध्य आयु में ही किया होगा। इससे निष्कर्ष निकाल सकतें हैं की उनके गुरु श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य की विध्य्मानता वि. सं. १३०० से १४०० के आसपास तक रही।
इन्ही केशवदेव नें मथुरा में यवनों का दमन कर जन्मस्थान से मुस्लिमों के आतंक का शमन किया था। "कटरा-केशवदेव" इन्ही श्रीकेशवकाश्मीरीभट्टदेवाचार्य के नाम से प्रसिद्द हैं। तथा वहां के कृष्ण जन्मभूमि मंदिर का गोस्वामी परिवार इन्हे अपना पूर्वज मानता हैं। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं।
भक्तमालकार नाभादास जी ने भक्तमाल में इनके सम्बन्ध में अपने पद में "काश्मीर की छाप" और मथुरा में मुस्लिम तांत्रिक प्रयोग के विरुद्ध प्रयोग का विशेष उल्लेख किया हैं। जब तेरहवीं शताब्दी में ३० वीं पीठिका के आचार्य श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य की विध्य्मानता प्रमाणित होती हैं तब श्रीनिम्बार्काचार्य को श्रीरामानुजाचार्य यहाँ तक की कई विद्वान श्रीमध्वाचार्य जी के भी परवर्ती सिद्ध कर देते हैं। जितने भी शोध इतिहास लिखे जा रहे हैं सब सिर्फ पूर्व पूर्व की किताबों को कॉपी पेस्ट कर लिख रहें हैं परस्पर विरुद्ध तथ्यों की अनदेखी कर।
श्रीनिम्बार्क के अनुयायी उन्हें द्वापरान्त में प्रकट हुआ बताते हैं। और आपने जिस काल गणना का संकेत किया हैं उससे भी निम्बार्क के द्वापरान्त में विद्यमानता की ही पुष्टि होना सम्भाव्य हैं।

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

सर्व रूप सर्वेश्वर स्वामी

सर्व रूप सर्वेश्वर स्वामी ।। सर्व जीव कौ अंतर जामी ।।टे क ।। 
सर्व नाथ सब मांहि समायक ।। सर्व सरण सब कौं सुख दायक ।।१।। 
सर्व राय सम्रथ न अधूरा ।। सर्व भरण पोषण प्रभु पूरा ।।२।। 
सर्व नांव कौ नांव निरंजन ।। जामैं बसै सदा श्रव अंजन ।।३।। 
नित्य रूप अस्थिर परकाजै ।। परसराम प्रभु प्रगट विराजै ।।४।।




जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य पीठाधीश्वर श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी

श्रीसर्वेश्वरपपत्तिरतोत्रम्


कृष्णं सर्वेश्वरं देवमस्माकं कुलदैवतम् । 
मनसा शिरसा वाचा प्रणमामि मुहुर्मुहुः ।।१।।

कारुण्यसिन्धु स्वजनैकवन्धु कैशोरवेषं कमनीयकेशम् । 
कालिन्दिकूले कृतरासगोष्ठि सर्वेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।२।।

वेदैकगम्यं भुवनैकरम्यं विश्वस्य जन्मस्थितिभंगहेतुम् । 
सर्वाधिवासं न परप्रकाशं सर्वेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।३।।

राधाकलत्रं मनसापरत्रं हेयास्पृशं दिव्यगुणैकभूमिम् । 
पद्माकरालालितपादपद्म सर्वेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।४।।

आभीरदारानयनाब्जकोषैः संवर्चितास्यं निखिलैरुपास्यम् । 
गोगोपगोपीभिरलंकृतांघ्रि सर्वेश्वरं तं शरण प्रपद्ये ।।५।।

गोपालबालं सुरराजपालं रामांकमालं शतपत्रमालम् । 
वाद्यरसालं विरजं विशालं सर्वेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।६।।

आनंदसारं हृतभूमिभारं कंशान्तकारं हृपिनिर्विकारम् । 
कन्दर्पदर्पापिहरावतारं सर्वेश्वरं तं शरण प्रपद्ये ।।७।।

विश्वात्मकं विश्वजनाभिरामं ब्रह्मेन्द्ररूद्रेर्मनसा दुरापम् ।। 
भिन्न ह्यभिनन्न जगतोहि यस्मात् सर्वेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।८।।

पीतांशुकं चारुविचित्रवेशं स्निग्धालक कञ्जविशालनेत्रम् ।। 
गोरोचनालं कृतभालनेत्रं सर्वेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।९।।

वन्यैर्विचित्रै: कृतमौलिभूषणं मुक्ताफलाढ्य झषराजकुण्डलम् । 
हेमांगदं हारकिरीटकौस्तुभं मेघाभमानन्दमयं मनोहरम् ।।१०।।

सर्वेश्वरंसकललोकललाममाद्य देवंवरेण्यमनिशं स्वगतै रापम् ।
वृन्दावनान्तर्गतैर्मृगपक्षीभृंगैरीक्षापथागतमहं शरणं प्रपद्ये।।११।।

हे सर्वज्ञ ! ऋतज्ञ ! सर्वशरण ! स्वानन्यरक्षापर ! । 
कारुण्याकर ! वीर ! आदिपुरुष ! श्रीकृष्ण ! गोपीपते! ।। 
आर्तत्राण ! कृतज्ञ ! गोकुलपते ! नागेन्द्रपाशान्तक ! । 
दीनोद्धारक ! प्राणनाथ ! पतितं मां पाहि सर्वेश्वर ! ।।१२।।

हे नारायण ! नारसिंह ! नर ! हे लीलापते ! भूपते !। 
पूर्णाचिन्त्यविचित्रशक्तिकविभो ! श्रीश ! क्षमासागर !। 
आनन्दामृतवारिधे ! वरद ! हे वात्सल्यरत्नाकर ! । 
त्वामाश्रित्य न कोऽपि याति जठरं तन्मां भवात्तारय ।।१३।।

माता पिता गुरुरपीश ! हितोपदेष्टा 
विद्याधनं स्वजनवन्धुरसुप्रियो मे । 
धाता सखा पतिरशेषगतिस्त्वमेव 
नान्यं स्मरामि तवपादसरोरुहाद्वै ।।१४।।

अहो दयालो ! स्वदयावशेन वै प्रपश्य मां प्रापय पादसेवने। 
यथा पुनर्मेंविषयेषु माधव ! रतिर्न भूयाद्धि तथैव साधय ।।१५।।

श्रीमत्सर्वेश्वरस्यैतत्स्तोत्रं पापप्रणाशनम् । 
एतेन तुष्यतां श्रीमद्राधिकाप्राणवल्लभः ।।१६।।

इति श्रीमन्निम्बार्कपादपीठाधिरूढश्रीनिम्बार्कशरणदेवाचार्य विरचित-श्रीसर्वेश्वरप्रपत्तिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।



शनिवार, 17 नवंबर 2018

॥ श्रीसर्वेश्वर--स्वरूप ॥


हंस रूप भगवान ने, धर्यो सर्वेश्वर रूप । 
राधासर्वेश्वरशरण, चक्र--स्वरूप अनूप ॥१ ॥ 
सनकादिक सेवित सदा, श्रीसर्वेश्वर नाम । 
राधासर्वेश्वरशरण, प्रतिपल कोटि प्रणाम ॥२॥ 
शालग्राम स्वरूप हैं, सर्वेश्वर प्रिय रूप । 
राधासर्वेश्वरशरण, नमन करें सुरभूप ।३॥ 
श्रीसर्वेश्वर भजन हो, प्रतिपल पावन ध्यान । 
राधासर्वेश्वरशरण, वेद-पुराण विधान ॥८॥ 
तब ही सर्वेश्वर कृपा, जब हो दैन्य स्वरूप । 
राधासर्वेश्वरशरण, प्रणशत यह भव कूप ॥५॥ 
रसना सर्वेश्वर प्रभू, रटती प्रतिपल नाम । 
राधासर्वेश्वरशरण, जीवन शुभ परिणाम ।६॥ 
जो सर्वेश्वर अविरल भजे, छांड जगत की आश । 
राधासर्वेश्वरशरण, उसके हृदय प्रकाश ॥७॥ 
भव सागर अति गहन है, झंझावत अनेक । 
राधासर्वेश्वरशरण, रखे सर्वेश्वर टेक ॥८॥



श्रीहंस भगवान्, श्रीसर्वेश्वर प्रभु एवं श्रीसनकादिक महर्षि गण प्राकट्य महोत्सव की मङ्गल बधाई



"हंसस्वरूपं रुचिरं विधाय, य: सम्प्रदायस्य प्रवर्तनार्थम्।
स्वतत्त्वमाख्यत्सनकादिकेभ्यो, नारायणं तं शरणं प्रपद्ये ।"

अनंतकोटी-ब्रह्मांड नायक, करुणा-वरुणालय, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार श्रीहरि के मुख्य 24 अवतारों में श्रीहंस भगवान् भी एक अवतार हैं। आपका प्राकट्य सत्ययुग के प्रारम्भ काल में युगादि तिथि कार्तिक शुक्ल नवमी (अक्षय नवमी) को हुआ है। आपके अवतार का मुख्य प्रयोजन यही मान्य है कि एक बार श्रीसनकादि महर्षियों ने पितामह श्री ब्रह्मा जी महाराज से प्रश्न किया कि -

गुणेष्वाविशते चेतो गुणांश्चेतसि च प्रभो ।
कथमन्योन्यसंत्यागो मुमुक्षोरतितिर्षो: ।।।
पितामह ! जबकि चित्त विषयों की ओर स्वभाव: जाता है और चित्त के भीतर ही वासना रूप से विषय उत्पन्न होते हैं, तब मुमुक्षुजन उस चित्त और विषयों का परित्याग कैसे करें ?

यह चित्तवृत्ति-निरोधात्मक गम्भीर प्रश्न जब ब्रह्माजी के समझ में नहीं आया तब महादेव ब्रह्मा ने भगवान श्रीहरि का ध्यान किया। इस प्रकार ब्रह्माजी की विनीत प्रार्थना पर “ऊर्जे सिते नवम्यां वै हंसो जात: स्वयं हरि " कार्तिक शुक्ला नवमी को स्वयं भगवान् श्रीहरि ने हंसरूप में अवतार लिया । भगवान् ने हंसरूप इसलिए धारण किया कि जिस प्रकार हंस नीर-क्षीर (जल और दूध) को पृथक् करने में समर्थ है, उसी प्रकार आपने भी नीर-क्षीर विभागवत् चित्त और गुणत्रय का पूर्ण विवेचन कर परमोत्कृष्ट दिव्य तत्व साथ-साथ पंचपदी ब्रह्मविद्या श्री मंत्र का सनकादि महर्षियों को सदुपदेश कर उनके संदेह की निवृत्ति की । यह प्रसङ्ग श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध अध्याय 13 में श्रीकृष्णोद्धव संवादरूप से विस्तारपूर्वक वर्णित है।

भगवत्परायण, बाल-बह्मचारी, सिद्धजन, तपोमूर्ति ये चारों भ्राता सृष्टिकर्ता श्री ब्रह्मदेव के मानस पुत्र हैं। इन चारों के नाम हैं-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। इनके उत्पन्न होते ही श्री ब्रह्मा जी ने सृष्टि विस्तार की आज्ञा दी, पर इन्होंने प्रवृत्ति मार्ग को बंधन जानकर परम श्रेष्ठ निवृत्ति मार्ग को ही ग्रहण किया। श्री सनकादि मुनिजन निवृति धर्म एवं मोक्ष मार्ग के प्रधान आचार्य हैं। पूर्वजों के पूर्वज होते हुये भी ये पाँच वर्ष की अवस्था में रहकर भगवद्भजन में ही संलग्न रहते हैं।
श्रीहंस भगवान ने कार्तिक शुक्ल नवमी को श्री सनकादि महर्षियों की जिज्ञासा पूर्ति कर उन्हें श्रीगोपाल तापिनी उपनिषद के परम दिव्य पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपाल मन्त्रराज का गूढतम उपदेश तथा अपने निज स्वरुप सूक्ष्म दक्षिणावर्ती चक्राङ्कित शालिग्राम अर्चा विग्रह प्रदान किये जो श्रीसर्वेश्वर के नाम से व्यवहृत हैं। श्रीसर्वेश्वर प्रभु इन्हीं के संसेव्य ठाकुरजी है।

श्री सनकादिक संसेव्य श्रीसर्वेश्वर भगवान् गुञ्जाफल सदृश अति सूक्ष्म श्री शालिग्राम श्रीविग्रह हैं। इसके चारों ओर गोलाकार दक्षिणावर्तचक्र और किरणें बड़ी ही तेज पूर्ण एवं मनोहर प्रतीत होती हैं। मध्य भाग में एक बिन्दु है और उस बिन्दु के मध्य भाग में युगल सरकार श्रीराधाकृष्ण के सूक्ष्म दर्शन स्वरूप दो बड़ी रेखायें हैं। यह श्रीसर्वेश्वर भगवान् की प्रतिमा श्रीसनकादिकों ने देवर्षि श्रीनारदजी को प्रदान की थी और श्रीनारद जी ने भगवान श्री निम्बार्क महामुनीन्द्र को । इस तरह यह श्रीसर्वेश्वर भगवान शालिग्राम प्रतिमा क्रमशः परम्परागत अद्यावधि अ.भा. श्री निम्बार्काचार्य पीठ, निम्बार्कतीर्थ में विराजमान है। जब श्रीआचार्यचरण धर्म-प्रचारार्थ अथवा भक्तजनों के परमाग्रह पर यत्र-तत्र पधारते हैं, तब, यही श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा साथ रहती श्रीसर्वेश्वर प्रभु श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के परमोपास्य इष्टदेव हैं।