सम्पूर्ण पश्चिमी भारत क्षेत्र तुर्क आतताइयों द्वारा अनेक शताब्दियों से प्रताड़ित किया जा रहा था इस्लाम के सैनिक इस महान पुण्यभूमि भारत को दार-उल-हर्ब से दार-उल-इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए निरन्तर अपनी पैशाचिक ताकत से आक्रमण कर रहे थे और इसी वीरप्रसूता भूमि की संताने यहाँ के राजपूत योद्धा सहित समस्त निवासी अडिग रह शताब्दियों तक उन्हें प्रवेश करने से रोके रहे। परन्तु इतने सुदीर्घ संघर्ष से इस सुदृढ़ प्राचीर में आई दरारों में से होकर नरपिशाच प्रविष्ट भी हो चुके थे और अब संघर्ष इसी भूमि में चल रहा था। इस्लाम के सैनिकों ने कई एक स्थानों पर अपने अड्डे जमा लिये और दिल्ली पर स्थाई होकर भारत में बलपूर्वक मंदिरों ध्वंस कर मस्जिदें बनाना, जबरन इस्लाम में परिवर्तित करना इस्लामी राज्य के परम् आदर्श थे।
भारत के सामर्थ्य ने 400-500 वर्षों तक इस्लामी तलवार के वार सहने के पश्चात भी हार नहीं मानी तथा साम-दाम-दंड-भेद द्वारा किसी ना किसी प्रकार इनका प्रतिरोध प्रबलतम रूप से करते रहे।
क्षत्रिय कुल ने अपना सम्पूर्ण अस्तित्व दांव पर लगाकर सनातन धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व होम डाला। वहीँ निरंतर बने रहने वाले इस वातावरण से हतोत्साहित होने वाली प्रजा के मन को पुनः स्वस्थ बनाने हेतु महान संतों ने नेतृत्व संभाला। श्रीगोरखनाथ, श्रीकेशवकाश्मीरी भट्टाचार्य, श्रीरामनन्द स्वामी, श्रीकबीर दास, श्रीनानक देव जी, जैसे संतों ने अपनी भक्ति प्रवाह से जनमानस के दग्ध ह्रदय को शीतलता तो प्रदान की ही अपितु अपने तेजस्वी साधना बल से मुस्लिम पीरों, मौलवियों, के छद्म तंत्र बल, सूफी आवरण में छिपे धर्मान्तरण के कुत्सित प्रयासों को भी ध्वस्त करते रहे।
इसी महान संत योद्धा परम्परा के महान नायक थे निम्बार्काचार्य स्वामी श्रीपरशुराम देवाचार्य जी महाराज। जिन्होंने जांगल देश के निवासियों को मुस्लिम तांत्रिकों के आतंक से मुक्ति दिलाई तथा सम्पूर्ण मारवाड़ और आसपास के क्षेत्र को निर्भय कर भक्ति भागीरथी के अवरुद्ध प्रवाह को पुनः सुचारु किया।
बीकानेर-जयपुर-जोधपुर-अजमेर-सांभर-नागौर-पुष्कर आदि के सम्मिलित क्षेत्र को "जांगल देश" कहा जाता था। ईस्वी सन 1380 से 1550 के मध्य इस क्षेत्र में तुगलक,सैयद,लोदी,सूरी जैसे क्रूरों का किसी ना किसी रूप में दोलन होता रहा तथा मुगल पैर ज़माने के प्रयास में लगे थे।
नागौर अजमेर तो तुर्कों के गढ़ बन चुके थे। ख्वाजा अजमेरी की दरगाह इस्लामी तकियादारों का मुख्यस्थान था जहाँ से सुफीयाने की आड़ में भोली जनता को येन केन प्रकारेण भ्रमित कर इस्लाम में दीक्षित करना और तंत्रबल के चमत्कार दिखाकर हतोत्साहित करना जोरों से चल रहा था। उस समय पुष्कर के निकट अपना मुख्यालय बनाकर रहने वाला मस्तिंगशाह इन सूफी आतंकियों का नेतृत्व कर रहा था। पुष्कर होकर द्वारिका आदि की यात्रा वाले यात्री दलों को प्रताड़ित करना उनसे कर वसूलना आतंकित कर कलमा बुलवाना उसके धत्कर्म थे तथा उसके पालित शागिर्दों ने सम्पूर्ण मारवाड़ में ऐसे ही कार्य कर करके आम जन को उत्पीड़ित किया हुआ था।
ऐसे ही एक बार इस दुष्ट का सताया हुआ तीर्थयात्री दल मथुरा में नारद टीला पर विराजमान श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी के पास पहुंचा और पूरी कथा सुनाई तथा इस संकट के निवारण की प्रार्थना की। स्वामी श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी अपने वरिष्ठ शिष्य के माध्यम से इस्लामी काजी फकीरों के शमन का कार्य कर रहे थे। अपने शिष्य श्रीसोभुराम देव जी को आपने हरियाणा के बूढ़िया में स्थित कर उस क्षेत्र की जनता को इन आतंकियों त्राण से मुक्त किया था और अब अपने प्रिय शिष्य श्रीपरशुरामदेव जी को पुष्कर क्षेत्र के उस आतंकवादी मस्तिंगशाह के दमन हेतु जाने की आज्ञा दी।
श्रीगुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर श्रीपरशुरामदेव जी ने वर्तमान श्रीनिम्बार्कपीठ पर जो उस समय बीहड़ जंगल था आकर अपना आसन स्थापित किया जो मस्तिंगशाह के अड्डे के निकट था।
सर्वप्रथम तो स्वामीजी ने उस इस्लामी आतंकवादी के क्षद्म तांत्रिक बल को समाप्त कर वैष्णव सिद्धि का प्राबल्य दिखाया। आस पास के राजपूत योद्धाओं का संघठन खेजड़ला के भाटी सरदारों के नेतृत्व में बनाकर धीरे धीरे उस मस्तिंगशाह के सभी गुर्गों को समाप्त कर सम्पूर्ण क्षेत्र को निर्भय किया। पुष्कर-द्वारिका के मार्ग को निष्कंटक बनाकर तीर्थयात्रा पुनः आरम्भ करवाई।
खेजड़ला भाटी सरदार गोपाल सिंह जी, मेड़ता के राव दूदा जी मेड़तिया जैसे राजपूत वीरों के नेतृत्व में हिंदुओं के रक्षार्थ प्रयत्न आरम्भ हुए। जोधपुर में उस समय जड़मति अहंकारी मालदेव की मूर्खताओं के कारण इस प्रयास की गति धीमी रही परन्तु शनैः शनैः कुशलता से श्रीस्वामीजी के तपोबल से स्थितियाँ सुधरने लगी। वीरमजी मेड़तिया, सीहोजी भाटी के माध्यम से शेरशाह सूरी को प्रभाव में ले जजिया पर रोक लगवाई गई। मालदेव निजधर्म और निज कुल का ही हत्यारा हो रहा था तब शेरशाह के माध्यम से उसका नियमन किया गया। उस समय शेरशाह ने नवनिर्मित निम्बार्कपीठ की यात्रा की और स्वामीजी महाराज को एक बहुमूल्य दुशाला भेंट किया। स्वामीजी ने उस दुशाले को चिमटे से उठाकर अपने धूणे में डाल दिया, शेरशाह को दुखी देखकर उसी धूणे में से निकाल निकालकर अनेक दुशाले रख दिए। यह एक योगसिद्ध महात्मा का एक बलशाली विधर्मी को चमत्कृत कर धर्मरक्षा हेतु कार्य करवाने की नीति थी।
स्वामीजी ने अपने विरक्त शिष्यों की एक सेना ही स्थापित कर ली और गाँव गाँव में गोपाल द्वारों की स्थापना कर भक्ति और शक्ति के केंद्र स्थापित किये। इन गोपाल द्वारों के माध्यम से जहाँ भक्ति का आस्वादन होता वहीँ गाँव के प्रत्येक बालक/युवकों को अस्त्र शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रत्येक गाँव में ऐसे बलिष्ट वैष्णव युवाओं के दल स्थापित हो गए जो माला और भाला दोनों साथ रखते थे।
भक्तमालाकर श्रीनाभादास जी ने अपने पद में लिखा है -
गोविन्द भक्ति गद रोग गति तिलक दाम सद वैद हृद ।
जांगल देस के लोग सब परसराम किये पारसद ।।
जांगल देश के गाँव गाँव में श्रीपरशुरामदेव जी ने भक्ति और शक्ति का समन्वय कर सुदर्शनचक्र रुपी पार्षद प्रकट कर दिए जो श्रीनिम्बार्क प्रदत्त भक्ति का प्रचार करते थे और आवश्यकतानुरूप म्लेच्छ असुरों का चक्रराज के रूप में निवारण कर भक्तों की रक्षा करते थे। श्रीहरिव्यासदेवाचार्य के पश्चात स्वामी श्रीपरशुरामदेव जी को श्रीनिम्बार्कसमप्रदाय का आचार्यपद प्राप्त हुआ तथा परम्परागत श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा का सौभाग्य मिला। आपने अनेक पदों और दोहों की रचना करि जिसे सम्मिलित रूप से "परशुराम-सागर" के नाम से जाना जाता है। आपने जहाँ सर्वप्रथम अपना आसन स्थापित किया था वह स्थल श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ के रूप में जाना जाता है जो श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय का एकमात्र आचार्यपीठ है। आपश्री का जयन्ती महोत्सव भाद्रपद कृष्ण पञ्चमी को होता है।
ऐसे परम प्रतापी आचार्य श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी के जन्म जयन्ती महोत्सव की मङ्गल बधाई !
Parshuram devacharya ki kaun kaun se shishya Hui hai ???jo alag alag Pradesh mein Dharm ke prachar Prasar mein gai uska koi varnan Ho to upload kijie
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